अरुणा असफअली : भारत छोड़ो आंदोलन की वीरांगना

इतिहास

अरुणा असफअली भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की एक क्रांतिकारी महिला, ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की वीरांगना, और भारत रत्न पुरस्कार की मानक थीं। उनका जन्म पंजाब के कालका शहर में एक समृद्ध बंगाली ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बाद में उनका परिवार कलकत्ता शहर में स्थायिक हो गया। उनका प्राथमिक शिक्षा लाहौर के एक कॉन्वेंट स्कूल में और माध्यमिक शिक्षा नैनीताल के प्रोटेस्टेंट विद्यालय में हुआ। इसके बाद उन्होंने कलकत्ता के गोखले कन्या पाठशाला में अध्यापन का कार्य किया। उन्नीस वर्ष की आयु में, उन्होंने अपने से 23 वर्ष बड़े प्रसिद्ध मुस्लिम वकील असफ अली से अंतरधार्मिक विवाह किया (1928)। उनके परिवार ने इस विवाह का विरोध किया था। विवाह के बाद, अरुणा अपने पति के साथ यूरोप, अमेरिका, सोवियत संघ, और मैक्सिको का दौरा किया। उन्हें यूनेस्को के लिए गए भारतीय शिष्टमंडल में भी शामिल किया गया था।

असफ अली कांग्रेस के कार्यकर्ता थे, जिससे अरुणा का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से संबंध स्थापित हुआ। वे स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल हुईं। महात्मा गांधी, मौलाना आज़ाद, जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, और राममनोहर लोहिया के विचारों का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा, और वे उनके साथ सभाओं और प्रभात फेरियों में भाग लेने लगीं। 1930 और 1932 के सविनय अवज्ञा आंदोलन और 1941 के व्यक्तिगत सत्याग्रह में उन्होंने हिस्सा लिया और इसके लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा। 1930 से जीवन के अंत तक उन्होंने खादी के कपड़े पहने।

गांधीजी के नमक सत्याग्रह के दौरान, अरुणा ने नमक बनाने, जुलूस निकालने और सभाएं आयोजित करने का काम किया। ब्रिटिश सरकार ने उन पर मुकदमा चलाया और उन्हें एक साल की कैद की सजा सुनाई। गांधी-इरविन समझौते के तहत अधिकांश राजनीतिक कैदियों को रिहा कर दिया गया, लेकिन अरुणा को रिहा नहीं किया गया। जन आंदोलन के दबाव के कारण कुछ दिनों बाद उन्हें रिहा कर दिया गया। 1932 में उन्हें फिर से गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल में रखा गया और उन पर दो हजार रुपये का जुर्माना लगाया गया।जेल में भी उन्होंने सुधार लाने का प्रयास किया। उन्होंने भूख हड़ताल कर जेल अधिकारियों को राजनीतिक कैदियों के लिए बेहतर सुविधाएं प्रदान करने के लिए मजबूर किया।

भारत छोड़ो आंदोलन के कारण उनके जीवन को एक नया मोड़ मिला। 8 अगस्त 1942 को अखिल भारतीय कांग्रेस महासमिति का अधिवेशन मुंबई के गवालिया टैंक मैदान पर आयोजित किया गया था। ब्रिटिश सरकार ने महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू समेत कई नेताओं को जेल में डाल दिया था, जिससे देश में राजनीतिक शून्यता उत्पन्न हो गई थी। गवालिया टैंक मैदान पर पुलिस का पहरा था। ऐसे समय में पुलिस के घेरे का विरोध करके अरुणा ने ध्वजस्तंभ पर तिरंगा फहराया। वे अगस्त क्रांति दिवस की वीरांगना बन गईं। आंदोलन को समर्थन देने के उद्देश्य से वे चार साल तक, 1946 तक, भूमिगत रहीं। इस दौरान, जब वे कोलकाता में थीं, उन्होंने कांग्रेस की अंतरप्रांतीय गतिविधियों का मार्गदर्शन किया। दिल्ली में वे भूमिगत आंदोलन की प्रमुख नेता थीं। वे भूमिगत कार्यकर्ताओं के विभिन्न समूहों से मिलकर उन्हें प्रोत्साहित करतीं और समय-समय पर उदारता से आर्थिक सहायता भी प्रदान करतीं।

राममनोहर लोहिया के साथ अरुणा आसफ अली कांग्रेस के “इन्कलाब” नामक पत्रिका का संपादन करती थीं। उन्हें गिरफ्तार करना सरकार के लिए एक चुनौती था। उनकी गिरफ्तारी के लिए सरकार ने पांच हजार रुपये के इनाम की घोषणा की थी। जब उनकी सेहत खराब हो रही थी, तो महात्मा गांधी ने उन्हें पुलिस के समक्ष आत्मसमर्पण करने की सलाह दी, जिसे उन्होंने ठुकरा दिया था। बाद में, उनके खिलाफ वारंट रद्द कर दिया गया (1946)।

1947 में अरुणा दिल्ली प्रदेश कांग्रेस समिति की अध्यक्ष चुनी गईं। उन्होंने दिल्ली में कांग्रेस संगठन को मजबूत करने का काम किया। 1948 में उन्होंने समाजवादी पार्टी में प्रवेश किया; लेकिन दो साल बाद उन्होंने समाजवादी पार्टी छोड़ दी और अपने सहयोगियों की मदद से वामपंथी समाजवादी पार्टी का गठन किया (1950)। बाद में यह पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी में विलीन हो गई (1955)। अरुणा इस पार्टी की केंद्रीय समिति की सदस्य और अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस की उपाध्यक्ष बनीं। 1958 में उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी छोड़ दी और कुछ समय के लिए सक्रिय राजनीति से दूर रहीं।

अरुणा दिल्ली की पहली महापौर बनीं (1958)। इस दौरान उन्होंने दिल्ली के विकास के लिए प्रयास किए। उन्होंने लिंक नामक साप्ताहिक पत्रिका शुरू की। उन्होंने फिर से कांग्रेस पार्टी में प्रवेश किया। उन्होंने अमेरिका में भारत की राजदूत के रूप में भी काम किया। दिल्ली से प्रकाशित होने वाले पेट्रियट नामक अंग्रेजी दैनिक से वे अंत तक जुड़ी रहीं। वे ‘इंडो-सोवियत कल्चरल सोसाइटी’, ‘ऑल इंडिया पीस काउंसिल’, ‘नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वीमेन’ जैसी सामाजिक संस्थाओं से भी जुड़ी रहीं। अपने अंतिम दिनों में, उन्होंने दिल्ली की झोपड़पट्टी के लोगों के लिए वयस्क साक्षरता, चिकित्सा सहायता और रोजगार सृजन जैसे महत्वपूर्ण कार्य किए। साधारण जीवन, समाजवादी विचारधारा और निर्भीकता उनके व्यक्तित्व की विशेषताएं थीं। उनकी पुस्तक ट्रैवल टॉक की प्रस्तावना में, पंडित नेहरू उनका वर्णन करते हुए कहते हैं, “अरुणा एक बेचैन और दूसरों को बेचैन करने वाला व्यक्तित्व है।”

अरुणा को कई मान-सम्मान मिले। उन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार (1955), लेनिन शांति पुरस्कार (1975), और अंतरराष्ट्रीय सद्भावना के लिए ‘जवाहरलाल नेहरू पुरस्कार’ (1991) जैसे सम्मान प्राप्त हुए। लेनिन शांति पुरस्कार की राशि उन्होंने जनता और धर्मार्थ कार्यों को दान कर दी। भारत सरकार ने 1992 में उन्हें ‘पद्मविभूषण’ और मरणोपरांत 1997 में सर्वोच्च ‘भारत रत्न’ पुरस्कार देकर सम्मानित किया। भारतीय डाक विभाग ने उनके चित्र का डाक टिकट जारी कर उनके कार्यों का सम्मान किया (1998)। उनका निधन दिल्ली में हुआ।

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