ईडिपस भावना: सिग्मंड फ्रायड (1856–1939) ने अपनी मनोविश्लेषण में जिन कई नई और क्रांतिकारी संकल्पनाओं को प्रस्तुत किया, उनमें से एक ‘ईडिपस भावना’ है। उनके अनुसार, मानवीय जीवन पर कामप्रेरणा की निरंतर अधिसत्ता होती है और इसके आविष्कार विभिन्न रूपों में होते रहते हैं। मानवीय व्यवहार की मूल प्रेरणाओं में कामप्रेरणा एक प्रबल प्रेरणा है और बचपन में भी यह कामप्रेरणा प्रभावशाली होती है। बच्चे में यह अबोध रूप में होती है, और बचपन के प्रारंभिक काल में यह पूरे शरीर में फैली होती है।
व्यक्ति के जीवन में इस कामप्रेरणा का विकास धीरे-धीरे होता है। जिस अंग के माध्यम से बच्चा कामसुख अनुभव करता है, उसके अनुसार बाल्यावस्था में कामप्रवृत्ति की विभिन्न विकासावस्थाएँ मिलती हैं: (1) औष्ठिक: जन्म से डेढ़ वर्ष की आयु तक स्तनपान के माध्यम से बच्चा मुख्यतः ओष्ठस्पर्शजन्य भावनात्मक सुखानुभूति प्राप्त करता है। (2) गुदद्वारिक: इसके बाद चार वर्ष की आयु तक कामप्रेरणा गुदद्वार से संबद्ध हो जाती है। मल को रोकने में बच्चे को विशेष सुख मिलता है। (3) जननेंद्रियसंबद्ध: इसके बाद छह वर्ष की आयु तक बच्चा जननेंद्रिय के साथ खेल में विशेष आनंद महसूस करता है।
तीन से छह वर्ष की आयु के बीच ईडिपस अवस्था उत्पन्न होती है। इस दौरान माता-पिता ही बच्चे का प्रेमविषय बन जाते हैं। लड़के को उसकी माँ पूरी तरह से अपने लिए चाहिए होती है और उसे अपना पिता प्रतिद्वंद्वी लगने लगता है। ग्रीक पौराणिक कथा के राजकुमार ईडिपस से अनजाने में उसके पिता का वध हुआ और उसने अपनी ही माँ से विवाह किया। फ्रायड के अनुसार, बच्चे का व्यवहार भी इस प्रकार का होता है। जिस प्रकार लड़का अपनी माँ की ओर आकृष्ट होता है, उसी प्रकार लड़की अपने पिता की ओर आकृष्ट होती है। लड़के के मन में जैसा ईडिपस भावना उत्पन्न होता है, उसी प्रकार लड़की के मन में ‘इलेक्ट्रा भावना’ उत्पन्न होता है। इलेक्ट्रा नाम की राजकुमारी ने अपने प्रिय पिता की मृत्यु के कारण बनी अपनी माँ से अत्यधिक घृणा की, ऐसी एक और ग्रीक पौराणिक कथा है। इसी से ‘इलेक्ट्रा कॉम्प्लेक्स’ की संज्ञा मनोविश्लेषण में आई है।
इस ईडिपस अवस्था में बच्चा विभिन्न प्रकार की चपलताएँ करने लगता है। इस कठिन अवस्था से मुक्ति पाने के लिए लड़का अपनी माँ पर केंद्रित हुई प्रेरणा को दबा देता है और अपने पिता के साथ भावनात्मक तादात्म्य स्थापित करने लगता है। मन से अपने पिता के साथ एकरूप होकर वह जैसे अपनी माँ के प्रति अपनी प्रेरणा को अप्रत्यक्ष रूप से तृप्त करता है। इसी समय उसे पिता से अच्छे व्यवहार की शिक्षा मिलती है, जिसे वह आत्मसात करता है। इस प्रकार वह ईडिपस भावना से मुक्त हो जाता है। इसी समय उसकी शिक्षा प्रारंभ होती है और उसकी प्रेरणा अप्रकट अवस्था में चली जाती है और युवावस्था तक उसके अवचेतन मन में सुप्तावस्था में रहती है।
फ्रायड के अनुसार, ईडिपस भावना से ही व्यक्ति की ‘सदसद्बुद्धि’ की उत्पत्ति होती है। इस भावना से मुक्ति पाने के लिए बच्चा अपने पिता के साथ एकरूप तो होता ही है, साथ ही उनके दिए गए नैतिक शिक्षा को भी आत्मसात करता है। इस प्रकार उसका पराहम् निर्मित होता है।
ईडिपस भावना से व्यक्ति की केवल पराहं का उदय नहीं होता, बल्कि समलिंगी संभोग की प्रवृत्ति भी इससे उत्पन्न होती है। पिता के प्रति आदरयुक्त भय, स्त्री जाति के प्रति, जिन्हें पुरुष जैसा लिंग नहीं होता, इसलिए घृणा, किसी समलिंगी व्यक्ति द्वारा किए गए शारीरिक उत्पीड़न जैसी अनुभूतियों और जटिल मानसिक प्रक्रियाओं से उसके मन पर ऐसा प्रभाव होता है कि वह अनिवार्य रूप से समलिंगी कामुकता की ओर अग्रसर हो जाता है।
फ्रायड के अनुसार, जो व्यक्ति अपने बचपन के ईडिपसतुल्य अनुभवों की समस्या को स्वस्थ रूप से हल नहीं कर पाता, उसके अंतर्मन में आगे चलकर विभिन्न प्रकार के आंतरिक संघर्ष उत्पन्न होते हैं और वह मानसिक विकारों का शिकार बन जाता है। उसे विभिन्न प्रकार के घातक पापविचार सूझते हैं। विभिन्न चिंताएँ उसे अस्थिर करती हैं और कभी-कभी वह स्थायी रूप से पागल भी हो जाता है।
फ्रायड की ईडिपस भावना की यह संकल्पना मनोविज्ञान के क्षेत्र में जितनी क्रांतिकारी, उतनी ही विवादास्पद भी साबित हुई। इस संकल्पना के मूल में फ्रायड ने जो कुछ तत्त्व माने हैं: (1) मानवीय जीवन में लैंगिकता या कामप्रेरणा का वर्चस्व है और बचपन में भी यह कामप्रेरणा प्रभावी होती है। (2) बचपन की इच्छाएँ, प्रवृत्तियाँ और अनुभव संस्कार ज्यों के त्यों अवचेतन स्तर पर बने रहते हैं और बड़े होने पर अपना प्रभाव दिखाने लगते हैं। फ्रायड के इन तत्त्वों को कई मनोवैज्ञानिकों ने स्वीकार नहीं किया। फ्रायड ने मुख्य रूप से मानसिक विकृतियों से पीड़ित लोगों का अध्ययन किया और चिकित्सा की। इसमें उन्हें कामप्रवृत्ति का प्रबल प्रभाव दिखाई दिया, और इसलिए उन्होंने इसे इतनी प्राथमिकता दी।