कैलास लेणी

कैलास लेणी : सबसे बडा सुंदर शैलमंदिर

वास्तुकला

कैलास लेणी: महाराष्ट्र के वेरूळ का सबसे बडा और सुंदर शैलमंदिर। इसका मूल नाम कैलासनाथ है। राष्ट्रकूट राजा दंतिदुर्ग के शासनकाल में इस शिवमंदिर की छोटीसी शुरुआत की गई, जिसे बाद में कृष्णराज ने पूर्ण रूप दिया (आठवीं शताब्दी)। इसके बाद तीन-चार राजाओं के समय में मंदिर के चारों ओर मंडप, सरितामंदिर, लंकेश्वर लेणी और मातृकामंदिर भी खोदे गए। राष्ट्रकूटों की चार पीढ़ियों की धर्मभावना और दानशीलता के कारण आज का यह शैलमंदिर आकार में आया।

आकार और कलात्मकता

शैलमंदिर के शिल्प प्रकार की कैलासनाथ लेणी सबसे पूर्ण अवस्था है। पहले, इमारत के सामने और अंदर का भाग हूबहू प्रतिकृति शैलमंदिर में बनाया जाता था। लेकिन महाबलीपुरम के रथों की तरह मंदिर के सभी अंगो की पूर्ण प्रतिकृति यहाँ बनाई गई है। आकार और कलात्मकता की दृष्टि से यह लेणी महाबलीपुरम से अधिक प्रभावशाली है। पट्टदकल के विरूपाक्ष मंदिर और कांचीपुरम के कैलासनाथ मंदिर के आदर्श यहाँ दिखाई देते हैं। साथ ही, शिल्पशैलीपर भी पल्लव और चालुक्य संप्रदायों की स्पष्ट छाप दिखाती है।

एक पहाड़ी के ढलान पर, गोपुर और मुख्य मंदिर के लिए आवश्यक जगह छोड़कर, पहले 30 मीटर चौड़ा और उतना ही गहरा खड्डा खोदा गया। मध्यभाग में 60 मीटर लंबी और 30 मीटर चौड़ी पहाड़ से कैलासनाथ मंदिर की इमारत और उससे 30 मीटर दूर रखे शैल से प्रवेशद्वार और गोपुर खोदा गया। मंदिर की रचना या योजना सरल है: चौकोनी गर्भगृह, उसके चारों ओर थोड़ी दूरी पर पांच छोटे मंदिर, सामने चौरस मंडप और मंडप के सामने थोड़ी दूरी पर नंदिमंडप। मंडप और नंदिमंडप को जोड़ने के लिए पहाड़ का ही पुल खोदा गया है। मंदिर की इमारत का पूरा तल्ला ठोस है। कमर तक की ऊँचाई वाले आधारशिला पहाड़ में ही हाथी, सिंह, व्याल की विशाल मूर्तियाँ खोदी गई हैं। उनके सिर पर मंदिर की इमारत है जिसमें स्तंभ, छत, विमान और शिखर द्रविड़ शैली के हैं।

मूर्तिकला

वास्तुकला में स्वाभाविक रूप से सुंदर इस मंदिर को उत्कृष्ट मूर्तिकला से सजाया गया है। गोपुर की दोनों तरफ की दीवारों पर त्रिपुरांतक, गरुड़वाहन विष्णु, अर्जुन-सुभद्रा विवाह जैसे पौराणिक दृश्य चित्रित हैं। अंदर दोनों तरफ भव्य गजमूर्तियाँ और ध्वजस्तंभ भी हैं। मंदिर की आधारशिलापर रामायण और महाभारत की कथाओं के दृश्य शिल्पांकित हैं, पर उनमें कथात्मक कला दृष्टि नहीं है। अन्य शिल्पे आकार में बहुत बड़ी हैं जिनमें रावण और जटायू का संग्राम, त्रिपुरवध जैसी घटनाएँ दिखती हैं। इनमें कैलासोद्धरण का दृश्य अत्यंत नाट्यमय है। शिवपार्वती का अधिष्ठान, कैलास पर्वत को अपनी बाहों से जोर-जोर से हिलाने की कोशिश करता हुआ दशानन, भयभीत पार्वती और धीरगंभीर व शांत शिव जैसी प्रतिमाएँ अत्यंत प्रभावी हैं। मंदिर के अंदर के भाग पर लेपन करके रंगकाम किया गया था, लेकिन आज शेष बचे काम की तुलना में वह अजिंठा से बहुत ही निम्न स्तर का प्रतीत होता है। कल्पनाशक्ति की उन्नति के रूप में यह मंदिर यादगार है, फिर भी पहाड़ की आंतरिक गहराई में इस खोदीव, रेखांकित मंदिर को बनाने के पीछे की कला दृष्टि को विशेष श्रेष्ठ नहीं माना जा सकता।

संदर्भ : गुप्ते, आर.एस. महाजन, बी.डी. अजंता, एलोरा और औरंगाबाद गुफाएँ, बंबई, 1962.

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