पखावज: एक भारतीय तालवाद्य। पखावज को मृदंग भी सामान्यतः कहा जाता है, हालांकि आज के ‘मृदंगम्’ जो कर्नाटक संगीत का तालवाद्य है और उत्तर भारतीय पखावज की रचना और वादनपद्धति में कुछ अंतर है। अबुल फज्ल ने आईन-इ-अकबरी (1598) में लिखा है कि ‘पखावज’ नाम ‘आवाज’ से उत्पन्न हुआ है। प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में मृदंग या मुरज, पणव और दर्दुर इन तालवाद्यों को ‘पुष्कर’ जाति के वाद्य कहा गया है। वाजसनेय संहिता में ‘अदम्बर’, वाल्मीकि के रामायण में ‘मड्डुक’, और शार्ङ्गदेवकृत संगीतरत्नाकर में ‘पटह’ जैसे तालवाद्यों का उल्लेख मिलता है। ‘मृत् अङ्गं यस्य सः’ अर्थात मृदंग का अंग मिट्टी का होता है। प्राचीन काल में इस पोकळ तालवाद्य का अंग नदी किनारे की मुलायम चिकनी मिट्टी, गेहूं या जौ के आटे से बनाया जाता था। कालांतर में इसे बीज, खैर, रक्तचंदन, आबनूस आदि वृक्षों के लकड़ी से बनाना शुरू हुआ।
पखावज का आकार पिंप जैसे होता है और इसे सामने रखने पर बाईं ओर का मुँह दाईं ओर के मुँह से कुछ बड़ा होता है। बाईं ओर का व्यास लगभग 25 सेमी और दाईं ओर का व्यास 16 सेमी होता है। बाईं ओर से लगभग 12 सेमी की दूरी पर इसकी लकड़ी की नली का आकार थोड़ी फूली हुई होती है। इसकी लंबाई लगभग 60 सेमी और फूली हुई नली का घेरा लगभग 90 सेमी होता है। दोनों मुँह बकरी की सपाट चमड़ी से मढ़े जाते हैं। उन्हें किनारे के पास छेदों के माध्यम से गजरे की वीण के सहारे चमड़ी में बाँधकर कस दिया जाता है। ‘चाटी’ की चमड़ी की घनता दाट होती है। चमड़ी में आठ लकड़ी के पिन बाँधते हैं। इन पिन को ऊपर-नीचे करके और गजरे पर हथौड़ी या पत्थर से प्रहार करके पखावज आवश्यक स्वर में मिलता है। दाईं पुडी पर आधा छटाक लोहे का कीस, मैदा या चावल से बनी एक तोला लाही और तीन मासे काली स्याही या कोयले की पाउडर से बनी स्याही का गोलाकार थर दिया जाता है। इससे पखावज स्वर में मिलाना संभव होता है और तारध्वनी उत्पन्न होती है। बाईं पुडी पर गेहूं के आटे की पेस्ट वादन से पहले लगाई जाती है। इसे कम-ज्यादा करके आघात के बाद उत्पन्न होने वाली गंभीर ध्वनि को आवश्यक मधुरता मिलती है।
पखावज को आड़ा रखकर और हाथों से बजाते हैं। वाद्य पर दोनों हाथों की उँगलियों और हथेलियों से आघात किए जाते हैं। कभी-कभी दाईं पुडी पर अलग उँगलियों से आघात करके बोल उत्पन्न किए जाते हैं। वाद्य की ध्वनि बहुत मधुर और गंभीर होती है। वादन में विविध बोलसमूह, लयबंध, गती, गतपरणी, परणी, रेले आदि रचनाएँ बजाई जाती हैं। मूलतः यह नृत्य के साथ-साथ ध्रुपद-धमार जैसी संगीतरचनाओं की संगति के लिए उपयोगी वाद्य है।