पबना उठाव (1873-1876): बंगाल में किसानों द्वारा जमींदारों के खिलाफ किया गया आंदोलन था। यह उठाव जमींदारों द्वारा अत्यधिक राजस्व बढ़ाने और राजस्व न चुकाने वाले किसानों की संपत्तियों की जब्ती के खिलाफ शुरू हुआ। मुख्य कारण थे जमींदारों द्वारा भूमि का हिस्सा बढ़ाना और 1859 के कानून की धारा 10 के तहत किसानों को मिलने वाले अधिकारों को छीनना। जमींदार किसानों को उनकी ज़मीन से बलात्कारी तरीके से बेदखल कर रहे थे, उनकी फसल और मवेशी जब्त कर रहे थे, और महंगे और खर्चीले मुकदमों में फंसा रहे थे। इस अन्याय के खिलाफ विरोध की भावना से पबना जिले के युसुफशाही परगना से यह आंदोलन शुरू हुआ और जल्द ही बंगाल के कई जिलों में फैल गया।
1793 के जमींदारी कानून ने बंगाल में खेती करने वाले ‘कुल’ नामक वर्ग को बड़े पैमाने पर अस्तित्व में लाया। इन कुलों को कितने समय के लिए और कितनी जमीन दी जाएगी, इसकी कोई गारंटी नहीं थी। 1859 में ब्रिटिश सरकार ने ‘बंगाल रेंट एक्ट’ पारित किया, जिसके तहत पबना में 50% से अधिक कुलों को सीमित समय के लिए जमीन के अधिकार मिले। लेकिन 1860 के दशक में जमींदारों ने कुलों के अधिकारों पर पाबंदियां लगाना शुरू कर दिया। 1793 से 1872 के बीच, जमींदारों ने भूमि राजस्व को सात गुना बढ़ाने के साथ-साथ अन्य कई कर भी लगाए। अत्यधिक कर वृद्धि और अधिकारों के हनन के कारण किसानों में असंतोष उत्पन्न हुआ, जो आंदोलन में बदल गया।
जमींदारों के खिलाफ लड़ाई के लिए युसुफशाही परगना के किसानों ने एक संगठन बनाया (मई 1873)। इस संगठन ने सार्वजनिक सभाएँ आयोजित कीं और सभाओं की सूचना देने के लिए ‘शिंग और ढोल’ जैसे साधनों का उपयोग किया। एक गाँव से दूसरे गाँव तक सूचना देने के लिए हाकों का इस्तेमाल किया गया। संगठन ने राजस्व वृद्धि का विरोध किया और जमींदारों को न्यायालय में चुनौती दी। मुकदमे के खर्च को साझा करने के लिए किसानों ने चंदा जमा किया। इस आंदोलन की विशेषता यह थी कि इसका विरोध कानूनी था और हिंसा की मात्रा बहुत कम थी। केवल तब हिंसा हुई जब जमींदारों ने अपनी मांगों को बलात्कारी तरीके से थोपने की कोशिश की। जहाँ किसानों द्वारा हिंसा हुई, वहाँ सरकार ने जमींदारों का समर्थन किया। कानूनी संघर्ष और शांतिपूर्ण आंदोलन में सरकार ने तटस्थ रुख अपनाया और जमींदारी अत्याचार से कुलों की रक्षा के लिए आवश्यक कानून बनाने का आश्वासन दिया, जिसके परिणामस्वरूप 1885 में ‘बंगाल कुल कानून’ पारित किया गया, जो काफी अधूरा था।
यह आंदोलन किसानों की तत्कालीन शिकायतों को दूर करने और कानूनी अधिकारों और प्रथाओं की कार्यान्वयन तक ही सीमित था। जमींदारों और उपनिवेशी सरकार ने इसे स्वीकार कर लिया। आंदोलन का उद्देश्य जमींदारी प्रणाली के खिलाफ नहीं, बल्कि अन्यायपूर्ण जमींदारों के खिलाफ था। आंदोलन की किसी भी अवस्था में इसमें उपनिवेशी विरोध की कोई धार नहीं थी। किसान नेताओं ने बार-बार कहा कि उनका विरोध ब्रिटिश सरकार से नहीं, बल्कि जमींदारों से है। किसानों के नेताओं ने घोषणा की कि वे ब्रिटिश महारानी के और सिर्फ उसकी प्रजा बनना चाहेंगे। कुछ समाचार पत्रों ने इस आंदोलन को हिंदू-मुस्लिम रंग देने की कोशिश की, लेकिन ऐसा कोई स्वरूप इस आंदोलन को नहीं मिला। इस आंदोलन को भारतीय दंड संहिता की कार्रवाई तक सीमित रखा गया, इसलिए इसे सशस्त्र दमन का सामना नहीं करना पड़ा। आंदोलन का नेतृत्व ईशान चंद्र राय और शंभूपाल ने किया। गवर्नर केंपेबल, बंकिमचंद्र चटोपाध्याय, आर. सी. दत्त और अन्य बुद्धिजीवियों ने इस आंदोलन का समर्थन किया।
संदर्भ:
- Bandyopadhyay, Sekhar, From Plassey to Partition – A History of Modern India, Orient Longman, New Delhi, 2006.