भवाई, गुजरात और राजस्थान के लोकनृत्यनाट्य का एक पारंपरिक प्रकार है। गुजराती साधु असाईत ठाकुर को भवाई का जनक माना जाता है। गुजराती भवाई नाटक की कथा अक्सर लोकगीतों पर आधारित होती है और इसे चार चरणों में विभाजित किया गया है। पहले चरण में हंसोली और नरवाहन का विवाह और दूसरे, तीसरे, और चौथे चरणों में उनके जुड़वां हंसराज और वच्छराज की तीन जन्मों की कहानी होती है।
भवाई लोकनृत्यनाट्य : इतिहास और परंपरा
इस मूल गुजराती लोकनाट्य को राजस्थान और मालवा में नृत्यनाट्य का रूप प्राप्त हुआ है। ऐसा उल्लेख मिलता है कि नाचगाने वाले नागाजी नामक जाट ने लगभग चार सौ साल पहले इसे यह रूप दिया था। तब से भवाई के समूह बनाए गए और वे गांव-गांव में भवाई नृत्यनाट्य के खेल करने लगे जिससे वहां के लोकनर्तकों में भवाई को एक स्वतंत्र स्थान प्राप्त हुआ। आईन-ए-अकबरी में भवाई का उल्लेख मिलता है, जिससे यह स्पष्ट होता है। गुजरात के तरगाळा जाति के लोग पारंपरिक रूप से अभी भी भवाई के खेल करते हैं।
भवाई लोकनृत्यनाट्य : स्वरूप
गुजरात के भवाई लोकनाट्य और राजस्थान के भवाई नृत्यनाट्य के खेलों में ज्यादा अंतर नहीं होता। दोनों प्रकार के भवाई-खेलों के लिए विशिष्ट रंगमंच नहीं होता। कोई भी सड़क, गली, धर्मशाला, मंदिर के सामने का आंगन या नदी किनारे की खुली जगह इसके लिए पर्याप्त होती है। बड़े फटे कपड़े या सतरंजी पर्दे का काम निभा सकती है। जिन पात्रों का काम खत्म हो जाता है, वे पर्दे के पीछे चले जाते हैं और उनकी जगह नए पात्र आते हैं।
प्रत्यक्ष खेल शुरू करने से पहले लगभग 10 वर्ग फुट (लगभग 3.48 वर्ग मीटर) जगह को एक ईंट से साफ कर वहां रंगदेवी की स्थापना की जाती है। इस रंगदेवी के आसन के नीचे एक शुभचिन्ह के रूप में त्रिशूल और आसन के पीछे के पर्दे पर कुंकुम से बेलबूटे बनाए जाते हैं। फिर दीपक जलाकर दो प्रार्थना गीतों से रंगदेवी की प्रतिष्ठा की जाती है। इस रंगभूमि को वे अत्यंत पवित्र मानते हैं। वहां जलता हुआ दीपक प्रारंभ से अंत तक, मतलब खेल खत्म होने के बाद अगले दिन मुख्य पात्र द्वारा अपने पांव की चूड़ियां खोलने तक जलता रहता है।
भवाई में पात्रों की रंग-वेशभूषा भी अत्यंत साधारण होती है। अपने चेहरे पर खड़िया या पीली मिट्टी का रंग चढ़ाते हैं। उसके बाद खड़िया, कुंकुम और काजल की रंगरेखाएं खींचकर चेहरा सजाते हैं। विदूषक का चेहरा अन्य पात्रों के मुकाबले भड़क रंगों से सजाया जाता है। वेशभूषा के लिए ये लोग समय पर उपलब्ध कपड़े और गहने इस्तेमाल करते हैं।
भवाई लोकनृत्यनाट्य के पात्र
खेल की शुरुआत में पांच-सात गीत गाकर वे देवी की स्तुति करते हैं। इसके बाद गणेश का प्रवेश होता है। उस समय उसके चेहरे के चारों ओर प्रकाश दिखाया जाता है। उसके बाद कुछ अन्य प्रसंग दिखाए जाते हैं। हर दृश्य में ‘रंगलो’ नामक विदूषक होता है। वह अपनी अभद्र हंसी-मजाक, अशिष्ट हरकतों और ग्राम्य हावभाव से दर्शकों को अंत तक हंसाता रहता है। भवाई खेल की सफलता काफी हद तक इस ‘रंगलो’ पर निर्भर होती है। भवाई नाटक में हर पात्र का संवाद स्वतःस्फूर्त होता है। इसलिए जो मन में आता है वह बोल दिया जाता है। कभी-कभी कोई पात्र अपने कुछ विशेष संकेतों को नोट कर लेता है, लेकिन वह केवल उसके लिए ही होता है। स्त्री वेशधारी पात्र नाचते समय दर्शकों के सामने आकर अभिनय करती है। उस समय वह तेल में भीगा हुआ काकड़ा अपने चारों ओर घुमाती है, जिससे दर्शकों को उसका चेहरा उज्जवल दिखाई देता है। किसी भी खेल में नायक, नायिका और विदूषक के तीन ही पात्र होते हैं। भवाई नृत्यनाट्य में गीत सुर में गाए जाते हैं। अक्सर ये पंचम या धैवत में होते हैं। पात्रों के उच्चारण स्पष्ट और शुद्ध होते हैं। हावभाव भी आकर्षक होते हैं। संवाद अक्सर पद्यात्मक होते हैं। कभी-कभी वे गद्यात्मक होते हैं, लेकिन तालसुर पर लयबद्ध होते हैं। वे मानते हैं कि उनकी जुबान पर सरस्वती और मुद्रा में शक्ति का वास है।
भवाई लोकनृत्यनाट्य की संहिता
भवाई की संहिता मौखिक परंपरा से आई होती है। इसे ‘वेश’ कहते हैं। उनकी संख्या 360 तक जाती है। ‘झुला झुलण नो वेश’ यह ‘भवाई वेश’ गुजरात में अत्यंत प्रसिद्ध है। प्रायः इन सभी वेशों (भवाई खेलों) में दैनिक जीवन की सामाजिक-धार्मिक घटनाओं-प्रसंगों पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी की गई होती है। उदाहरण के लिए, बोराबोरी (लोगों को ठगने वाले व्यापारी दंपत्ति), सूरदास (अंधे कुप्रसिद्ध साधु की कथा), डोकरी (युवा लड़की का वृद्ध वर से विवाह), लाडालाडी (बहुपत्निकता के दुष्परिणाम) और शंकरिया (सपेरा प्रेमी और जोगिन प्रेमिका की भड़क शृंगार कथा) आदि। इसके अलावा हंसी-मजाक के साथ प्रेमभाव की तीव्रता दिखाने वाले बीकाजी, बाधाजी या ढोलामारू जैसी पात्रों और तलवार का नाच, सात मटकों का नाच, जलती बोतल का नाच और सतरंगी पगड़ियों का कमल-नृत्य जैसे नृत्यों से भवाई की विशेषता प्रकट होती है। इन नृत्यों के समय लोकगीतों के साथ सारंगी, नफीरी (सनई), ढोल और मंजीरा (चिपलियां) का उपयोग किया जाता है। भवाई के नृत्यनाट्यों में अश्लील ध्वनियाँ और अभद्र पदचाप अनिवार्य रूप से होते हैं।
भवाई लोकनृत्यनाट्य : अश्लीलता और अभद्रता
इस अश्लीलता और अभद्रता को देखकर पिछले शताब्दी में कुछ समाजसेवियों ने इसे बदलने का प्रयास किया। उनमें प्रमुख थे गुजरात के रणछोड़भाई उदयराम। 1861 में उन्होंने भवाई की निराशाजनक स्थिति के कारण अच्छी नाट्यलेखन की ओर रुख किया और जयकुमारी, हरिश्चंद्र, ललिता दुःखदर्शन आदि नाटकों की रचना की। इसके साथ ही जनसामान्य में भवाई के प्रभाव को कम करने के उद्देश्य से दलपतराम, नर्मदाशंकर, मणिभाई, नभुभाई, विभाकर आदि ने रंगभूमि को नया रूप देने का प्रयास किया। प्रसिद्ध नाटककार चंद्रवदन मेहता ने तो भवाई की तर्ज पर हो-होलिका नामक नए लोकनाटक की भी रचना की। फिर भी भवाई का प्रभाव थोड़ा भी कम नहीं हुआ। इन नए नाटकों ने नागरिकों का दिल जीत लिया और यह नई रंगभूमि नागर संस्कृति में विकसित होने लगी, फिर भी ग्रामीण क्षेत्रों में भवाई की ‘भवादू’ परंपरा ने अपना अस्तित्व बनाए रखा। वास्तव में भवाई में साहित्यिक दृष्टि से मूल्यांकन योग्य काफी सामग्री है, लेकिन इसका साहित्य में समावेश नहीं किया जाता।