भारतीय तत्वज्ञान में अनंत अवधारणा सबसे पहले उपनिषदों में आई है। तैत्तिरीय उपनिषद में ब्रह्म का स्वरूप ‘सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म’ ब्रह्म सत्य, ज्ञान और अनंत है, इस प्रकार से वर्णित किया गया है। ‘छांदोग्य उपनिषद’ में ‘अनंत’ शब्द का पर्यायवाची ‘भूमा’ बताया गया है, ऐसा शंकराचार्य कहते हैं। ‘भूमा’ की व्याख्या वहां ‘यत्र नान्यद्विजानाति’- ‘जहां एक से दूसरा ज्ञात नहीं होता, वही भूमा’ इस प्रकार से की गई है। मतलब घट, पट आदि वस्तुओं का भेद जहां समाप्त हो जाता है, वही वस्तु। शंकराचार्य ने कहा है, ‘जो वस्तु किसी भी चीज से अलग नहीं है, वही अनंत है’, इस प्रकार अनंत की व्याख्या की है। ‘अलगाव’ मतलब अंत, जहां नहीं है, वही अनंत है।
शंकराचार्य ने देशत:, कालत: और वस्तूत: इस प्रकार ब्रह्म की त्रिविध अनंतता बताई है। आकाश नहीं है ऐसा कोई प्रदेश ही नहीं है, इसलिए आकाश देशत: अनंत है। परंतु आकाश एक कार्य है, यह उत्पन्न होता है, इसलिए आकाश को कालत: अनंतता नहीं है। जो उत्पन्न नहीं होता और नाश भी नहीं होता, वह कालत: अनंत है और ब्रह्म ऐसा अनंत है।
‘अनंत’ शब्द से व्यक्त होने वाली देशत: अनंतता वैशेषिक दर्शन में ‘विभु’ इस पद से व्यक्त की गई है। आकाश, काल, दिक् और आत्मा ये विभु द्रव्य हैं। विभु मतलब सभी मूर्त द्रव्यों से संयुक्त। इसी दर्शन में नित्य और अनित्य इस प्रकार द्रव्यों के वर्ग बनाए गए हैं। नित्य मतलब कालत: अनंत, उत्पत्ति और विनाश रहित। परमाणु, आकाश, काल, दिक् और आत्मा ये नित्य हैं।
बौद्ध धर्म में सभी वस्तुएं विनाशी और क्षणभंगुर मानी जाती हैं। परंतु वस्तुओं का कार्यकारणभाव से निर्माण होने वाला प्रवाह अनादि माना जाता है। निर्वाण मतलब मोक्ष नित्य माना जाता है।
संख्यात्मक अनंतता भारतीय तत्वज्ञान में ‘अगण्य’ या ‘असंख्य’ शब्दों से व्यक्त की जाती है। परंतु अनंत नामक संख्या भारतीय साहित्य में निर्दिष्ट की हुई नहीं मिलती।
जैन तत्वज्ञान के अनुसार कर्मबंध से मुक्त जीव में अनंतचतुष्ट्य (चार अनंत गुण) अर्थात अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख और अनंत वीर्य व्यक्त होते हैं। विभिन्न कर्मबंध रहते हुए ये जीव के गुण आवृत मतलब ढके हुए होते हैं।