रैदास: (सु. पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी)। उत्तर भारत के एक मध्ययुगीन संत। रविदास के नाम से भी जाने जाते हैं। महाराष्ट्र में ‘रोहिदास चांभार’ के नाम से पहचाने जाने वाले संत यही हो सकते हैं।
वे काशी के रहने वाले थे। उनके पिता का नाम राहू, माता का नाम करमा और पत्नी का नाम लोना था। उनके विजयदास नामक पुत्र का उल्लेख परमानंदस्वामी रचित ‘रविदास पुराण’ में मिलता है।
सत्संगति का प्रभाव हुआ और वे बारह वर्ष की उम्र से ही राम और सीता की मूर्ति की पूजा करने लगे। उनके माता-पिता ने देखा कि वे गृहस्थ जीवन नहीं संभाल पाएंगे, इसलिए उन्हें घर से बाहर निकाल दिया। वे निस्पृह और संतुष्ट व्यक्ति थे। उनके जीवन से जुड़ी कई दंतकथाएँ प्रचलित हैं। कहा जाता है कि वे बिना किसी पारिश्रमिक के साधु-संतों को जूते भेंट करते थे।
उन्हें रामानंद का शिष्य माना जाता है, परंतु उनके किसी पद में इसका उल्लेख नहीं मिलता। वे कबीर (सु. १३९८-सु. १५१८) के समकालीन थे। मीरा बाई ने अपनी कई रचनाओं में रैदास को अपना गुरु माना है। यह स्पष्ट नहीं है कि रैदास मीरा बाई के गुरु थे या रैदासी संप्रदाय के किसी अनुयायी को मीरा बाई ने गुरु माना था। कहा जाता है कि चित्तौड़ की झाला रानी या झालरानी उनकी शिष्या थीं और वह राणा संग या राणा कुंभ की पत्नी थीं। उनके निमंत्रण पर वे चित्तौड़ गए थे।
अध्येताओं का मानना है कि वे शायद अशिक्षित थे। उनकी कुछ रचनाएँ ग्रंथ साहिब में मिलती हैं। उनकी रचनाओं का एक संग्रह ‘रैदासजी की बानी’ के नाम से प्रयाग से प्रकाशित हुआ है। राजस्थान में उनकी कुछ रचनाएँ हस्तलिखित रूप में भी पाई जाती हैं। उनकी एक और अप्रकाशित रचना ‘प्रह्लाद लीला’ है। उनकी भाषा पर फारसी का प्रभाव दिखता है।
वे मानते थे कि भक्ति के लिए परमवैराग्य आवश्यक है। उन्होंने यह तात्त्विक विचार रखा कि अनिर्वचनीय, एकरस, अक्षर और अविनाशी परम तत्व ही सत्य है और वह प्रत्येक जीव में स्थित है। उनके सदाचार और आध्यात्मिक साधना को देखकर सभी वर्णों के लोग अपने वर्ण अहंकार को भूलकर उनके सामने नम्र हो जाते थे।
कहा जाता है कि वे 120 वर्षों तक जीवित रहे। कबीर ने भी उन्हें एक महात्मा के रूप में सम्मानित किया है। नाभादास, प्रियादास, धन्ना भगत, मीरा बाई आदि संतों ने भी उनका आदरपूर्वक उल्लेख किया है। उनके द्वारा प्रवर्तित पंथ ‘रैदासी पंथ’ के रूप में प्रसिद्ध है। महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब, राजस्थान आदि प्रदेशों में इस पंथ के अनुयायी पाए जाते हैं।
संदर्भ: चतुर्वेदी, आचार्य परशुराम, उत्तरी भारत की संत परंपरा, इलाहाबाद, 1964।