हरिशंकर परसाई (22 अगस्त 1934 – 10 अगस्त 1995) एक प्रसिद्ध हिंदी लेखक और व्यंग्यकार थे। हिंदी साहित्य में व्यंग्य को लोकप्रिय बनाने में उनका महत्वपूर्ण योगदान था। उनका जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के जमानी गांव में हुआ था। हरिशंकर ने अपनी प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा अपने गांव में ही पूरी की। उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय, नागपुर से हिंदी विषय में स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्त की। उन्होंने विभिन्न स्थानों पर नौकरी की, और केवल अठारह वर्ष की उम्र में वन विभाग में नौकरी की शुरुआत की। उन्होंने खंडवा, जबलपुर आदि स्थानों पर 1953 से 1957 के दौरान कई निजी स्कूलों में अध्यापन कार्य किया। इसी दौरान जबलपुर में स्पेस ट्रेनिंग कॉलेज से शिक्षण की डिग्री प्राप्त की। उनमें मौजूद कुशल लेखक उन्हें बार-बार प्रेरित करता था, और शायद इस कारण से उन्होंने नौकरी छोड़ दी और लेखन कार्य में खुद को समर्पित कर दिया।
हरिशंकर परसाई की पहली रचना “स्वर्ग से नरक जहाँ तक है” 1948 में प्रहरी नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई। इस रचना में उन्होंने कर्मकांड और अंधविश्वास पर कठोर प्रहार किया था। धर्म में मौजूद निरर्थक कर्मकांड पर आलोचना करना परसाई के लेखन का प्रमुख उद्देश्य माना जाता है। उन पर कार्ल मार्क्स के विचारों का प्रभाव था। रिश्वतखोरी के पीछे के मनोविज्ञान को उजागर करने वाली उनकी रचना “सदाचार का ताबीज” उल्लेखनीय मानी जाती है।
हरिशंकर परसाई की साहित्यिक संपदा में शामिल हैं:
- कथासंग्रह: हंसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे, भोलाराम का जीव
- उपन्यास: रानी नागफनी की कहानी, तट की खोज, ज्वाला और जल
- लेख संग्रह: तब की बात और थी, भूत के पाँव पीछे, बेईमानी की परत, अपनी अपनी बीमारी, प्रेमचंद के फटे जूते, माटी कहे कुम्हार से, काग भगोड़ा, आवारा भीड़ के खतरे, ऐसा भी सोचा जाता है, वैष्णव की फिसलन, पगडंडियों का जमाना, शिकायत मुझे भी है, उखड़े खंभे, सदाचार की ताबीज, विकलांग श्रद्धा का दौर, तुलसीदास चंदन घिसें, हम एक उम्र से वाकिफ हैं इत्यादि।
हरिशंकर परसाई जबलपुर-रायपुर से प्रकाशित होने वाले “देशबंधु” अखबार के माध्यम से पाठकों के प्रश्नों के उत्तर देते थे। इसके लिए “पूछिये परसाई से” नामक कॉलम चलाते थे। हल्के-फुल्के प्रश्नों से शुरू हुआ यह कॉलम बाद में गंभीर और सामाजिक समस्याओं से संबंधित प्रश्नों तक पहुँच गया, और परसाई जी ने इन प्रश्नों के भी उतने ही गंभीर और सटीक उत्तर दिए। यह कॉलम इतना लोकप्रिय हुआ कि पाठक इसे पढ़ने के लिए बेताब रहते थे।
हरिशंकर परसाई के व्यंग्यात्मक लेख पाठकों को केवल हंसाते नहीं हैं, बल्कि आत्मचिंतन के लिए भी मजबूर करते हैं। समाज में व्याप्त वास्तविकता को व्यंग्य के माध्यम से सामने लाने की उनकी कला अद्वितीय थी। समाज की व्यवस्था और धूर्त राजनेताओं की चालों से परेशान मध्यमवर्गीय लोगों की मानसिकता को वे अपनी रचनाओं में सटीक रूप से प्रस्तुत करते थे। हरिशंकर परसाई के लेखन में उर्दू और अंग्रेजी शब्दों का भी प्रयोग देखने को मिलता है। उनकी रचनाओं में भाषा, भावना और परिस्थिति के अनुसार शब्दों का चयन बहुत ही कुशलता से किया गया था। नादानुकारी शब्दों का वे लेखन में प्रयोग करते थे, और उनकी रचनाओं में जीवंतता और गतिशीलता भी दिखाई देती थी।
हरिशंकर परसाई की “विकलांग श्रद्धा का दौर” नामक पुस्तक को 1982 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उन्हें मध्य प्रदेश सरकार द्वारा शिक्षा सम्मान प्रदान किया गया और जबलपुर विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट. की मानद उपाधि से सम्मानित किया।
समाज में व्याप्त कुप्रवृत्तियों पर व्यंग्य के माध्यम से आलोचना करने वाले इस प्रसिद्ध लेखक का जबलपुर में निधन हुआ।