हसालारू कर्नाटक राज्य की एक आदिम जनजाति है। इनकी आबादी मुख्यतः चिकमंगलूर, शिमोगा, और कानडा (उत्तर और दक्षिण) जिलों के पहाड़ी क्षेत्रों में पाई जाती है। 2011 की जनगणना के अनुसार इनकी जनसंख्या 25,100 थी। ये मानते हैं कि इनका नाम ‘हसालारू’ या ‘हसाला’ ‘हासुल’ (मूल) शब्द से पड़ा है। वे खुद को ‘अग्नि होनप्पन मतदवरू’ भी कहते हैं क्योंकि इनका मानना है कि उनका पूर्वज होनप्पा एक धनुर्धारी क्षत्रिय था। ये शिकार के लिए मुख्यतः धनुष का उपयोग करते हैं। इनकी भाषा तुलू है, लेकिन अन्य लोगों से बातचीत में ये कन्नड़ भाषा का प्रयोग करते हैं। ये मेदार समुदाय के लोगों को अपना चचेरा भाई मानते हैं, क्योंकि होनप्पा का भाई चन्नय्या था, जिसकी संतान को मेदार या मेडा लोग कहा जाता है।
हसालारू के नामधारी हसाला, गोड्डा हसाला, मुगर हसाला, अप्पर हसाला, कारी मुगर हसाला, बेल्ली हसाला (बेल्लालरू), अन्तर्गलू हसाला, नाडू हसालानी, मले हसालारू, करा येलायुवा, बग्गालिना हसाला आदि कई उपविभाग हैं। ये मांसाहारी होते हैं और मुख्यतः सूअर का मांस खाते हैं। इनका मुख्य भोजन चावल है। इनके समाज में बाले, दण्डिगना, गंगरा, हदलिगे, कंदाली, कोवडची, कुल्लिगे, मल्लिगे, सेत्ती, थोलना आदि बहिर्विवाही कुल होते हैं, जबकि पहले अंतर्विवाही कुल हुआ करते थे।
जब लड़के-लड़कियां वयस्क हो जाते हैं, तब दोनों पक्षों की सहमति से उनका विवाह होता है। इनके समाज में मौसेरे-फुफेरे भाई-बहनों के बीच विवाह को प्राथमिकता दी जाती है, और देवर विवाह भी होता है। विवाह समारोह वधू के घर पर होता है। मंगलसूत्र (थाली), कुंकुम तिलक, और जोड़वी विवाहित स्त्री की मुख्य सौभाग्य चिह्न होते हैं। वधू मूल्य नकद राशि में दिया जाता है। व्यभिचार और अनुचित आचरण के कारण तलाक दिया जा सकता है। तलाकशुदा पुरुष और स्त्री, विधवा और विधुर पुनर्विवाह कर सकते हैं।
इनका समाज बीजकुटुंब पद्धति का पालन करता है, जिसमें संपत्ति का अधिकार मां से मिलता है और आलिया संतान नियम का पालन किया जाता है। अर्थात संपत्ति बहनों के बच्चों में बांटी जाती है। उत्तराधिकार ज्येष्ठ बेटी के बेटे को मिलता है, हालांकि हाल के दिनों में इसमें परिवर्तन हो रहा है। इनके समाज की स्त्रियां अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, वे परिवार की आय में योगदान देती हैं और घर खर्च का प्रबंधन भी करती हैं। । बच्चे के जन्म के बाद दस दिनों तक शुद्धिकरण होता है और ग्यारहवें दिन नामकरण विधि की जाती है। लड़कियों का ऋतुकाल करपथवुनी नाम से संपन्न होता है।
हसालारू मूल रूप से बंधुआ मजदूर थे, लेकिन इनका कई सदस्य खेती करने लगे हैं और कुछ मजदूरी भी करते हैं। इनके समाज में शिकार और कंद-मूल इकट्ठा करने का पारंपरिक व्यवसाय भी मिलता है। अधिकांश हसालारू हिंदू धर्म के अनुयायी हैं और कुक्के सुब्रमण्य और मंजुनाथ इनके मुख्य देवता हैं। इनके समाज में भूत-प्रेत पर विश्वास किया जाता है। इनके धार्मिक अनुष्ठानों का नेतृत्व जमातनायक करता है, जिसे ‘गुरिकर’ या ‘बुद्धिवंत’ कहा जाता है और यह पद पारंपरिक रूप से इनके पंचायत का होता है। ये उगादी, दशहरा, दिवाली, और संक्रांति के त्यौहार मनाते हैं। साथ ही ये कल्लूर्ती, बोब्बारिया, पांजुर्ली, और जातिका जैसी चित्शक्तियों की पूजा करते हैं। अश्विनी पूर्णिमा को भूमिपूजा करते हैं और शुक्ल प्रतिपदा को बसवण्णा की पूजा करते हैं।
मृतकों को ये दफनाते हैं या जलाते हैं। मृत्यु के बाद बारह दिनों तक अशौच पालन करते हैं और फिर पूर्वजों की पूजा करते हैं।