कर्ण की कहानी महाभारत में एक त्रासद नायक की है, जो अपने गुणों और कमजोरियों के साथ जीवनभर संघर्ष करता रहा। उनकी वीरता, दानशीलता, और मित्रता के प्रति निष्ठा उन्हें एक अद्वितीय और महान पात्र बनाते हैं। महाभारत में कर्ण की कथा हमें यह सिखाती है कि जीवन में कठिनाइयाँ और संघर्ष तो आते हैं, लेकिन धैर्य, साहस और धर्म का पालन हमें महान बनाता है।
कर्ण का जन्म
कर्ण का जन्म कुन्ती और सूर्यदेव के पुत्र के रूप में हुआ था। कुन्ती को ऋषि दुर्वासा से एक मंत्र प्राप्त हुआ था, जिसके प्रभाव से वह किसी भी देवता का आह्वान कर सकती थीं और उनसे संतान प्राप्त कर सकती थीं। जिज्ञासा वश, कुन्ती ने इस मंत्र का प्रयोग सूर्यदेव का आह्वान करने के लिए किया और इस प्रकार कर्ण का जन्म हुआ। कुन्ती अविवाहित थीं, इसलिए जन्मते ही कुंती ने इसे अश्व नदी में छोड़ दिया । संदूक में यह बालक बहते बहते को चर्मण्वती नदी में आया। वहाँ से यमुना तथा भागीरथी नदी में बहते समय, उसे धृतराष्ट्रसारथि अधिरथ ने देखा। इसे ले कर उसने अपनी पत्नी राधा को दिया। ने यह बालक देखते ही उसकी आँखों में आनन्दाश्रु आ गये। जन्मतः कर्ण पर कवच तथा कुंडल होने के कारण से यह अब तक जीवित था। देवदत्त पुत्र मान कर राधा ने इसका भरणपोषण किया। यह तेजस्वी था, इसलिये राधा ने इसका नाम वसुषेण रखा। कर्ण को दानवीर कर्ण के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि वह अत्यंत दानशील थे।
कर्ण की शिक्षा
कर्णका बाल्य काल अंगदेश में गया। कर्ण के जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब वह अपने शौर्य और धनुर्विद्या के प्रदर्शन के लिए हस्तिनापुर पहुंचे। वहां, उन्होंने गुरु द्रोणाचार्य और उनके शिष्य अर्जुन को चुनौती दी, लेकिन उनकी निम्न जाति के कारण उन्हें अपमानित किया गया। इसने द्रोण से ब्रह्मास्त्र सिखाने के लिये केवल प्रार्थना की थी । कृष्ण ने कहा है कि, यह सब वेद तथा शास्त्र जानता था । कर्ण अर्जुन पर भी श्रेष्ठत्व प्राप्त कर सकता था, इसका दुर्योधन ने अनुभव किया था। जिस समय कौरवपांडवों में विरोध प्रारंभ हुआ था, तबसे इसे उत्तेजना दे कर, उसने अपने पक्ष में कर लिया था।
परशुराम और कर्ण
कर्ण ने द्रोण से धनुर्विद्या प्राप्त कर ली थी, तथापि उसे ब्रह्मास्त्रप्राप्ति नहीं हुई थी। इस एक ही कारण से अर्जुन इससे श्रेष्ठ हो गया था। तब इसने द्रोण से कहा, ‘निष्पत्ति प्रकार तथा उपसंहार के साथ मुझे ब्रह्मास्त्र सिखाओ। परंतु कुछ कारणवश द्रोण ने यह अमान्य कर दिया। परंतु अर्जुन से श्रेष्ठत्व प्राप्त करने की इसकी महत्त्वाकांक्षा होने के कारण, यह महेन्द्र पर्वत निवासी परशुराम के पास गया। परशुराम क्षत्रियद्वेष्टा होने के कारण, वह क्षत्रियों को विद्या नहीं सिखाता था। स्वकार्य यशस्वी करने के लिये, कर्णने असत्य कथन किया एवं परशुराम को उसने बताया कि, यह भृगु कुलोत्पन्न ब्राह्मण है, इसलिये शिष्य बन कर रहने की अनुमति परशूराम ने दी। उसने कर्ण को सप्रयोग एवं यथाविधि ब्रह्मास्त्र सिखाया।
एक दिन उपवास से श्रांत परशुराम कर्ण की गोद में सिर रख कर सोया था, तब एक कृमि ने आ कर उसकी जांघ काट खायी। रक्त, स्पर्श से परशुराम जागृत हुआ। इतनी बेदनाएं कोई ब्राह्मण शांति से सहन नहीं कर सकता, यह सोच कर कर्ण के बारे में परशुराम के मन में शंका उत्पन्न हुई। चाहे जो हो, यह अवश्य क्षत्रिय है। कर्ण ने सत्यकथन कर उसे संतुष्ट किया, तथापि इसे शाप मिला कि, बराबरी के योद्धा से युद्ध करते समय, तथा अंतिम समय इसे अस्त्र की स्फूर्ति न होगी, अन्य समय पर होगी। असत्यकथन के कारण, परशुराम ने कर्ण से जाने के लिये कहा, परंतु यह आशीर्वाद भी दिया कि, तुम्हारे समान दूसरा कोई भी क्षत्रिययोद्धा न होगा।
गोवत्सहत्या ओर कर्ण को शाप
एक बार धनुष्य बाण समवेत कर्ण आश्रम के बाहर गया हुआ था, तब असावधानी से एक ब्राह्मणधेनु का बछड़ा इसके द्वारा मारा गया। तब उस ब्राह्मण ने इसे शाप दिया, ‘युद्ध में भूमि तुम्हारे रथ का पहिया निगल लेगी तथा असावध अवस्था में तुम्हारा शिरच्छेद होगा, ‘। इससे कर्ण को अत्यंत दुख हुआ। इसने धन दे कर उःशाप मांगने का प्रयत्न किया, परंतु उसने इसका धिकार किया।
कर्ण की अवहेलना
धृतराष्ट्र की अनुज्ञा से द्रोण ने कौरव पांडयों का शस्त्रास्त्रकौशल्य देखने के लिये रंगमंच तैय्यार किया। परंतु कर्ण ने कहा कि, अर्जुन के द्वारा दिखाये गये कौशल की अपेक्षा अधिक कौशल में दिखा सकता हूँ। तब कौरव पांडयों का झगड़ा हो कर, कर्ण ने अर्जुन को द्वंद्व युद्ध का आव्हान दिया। उस समय सब लोग आश्चर्य मृढ हो कर, कर्ण की ओर देख रहे थे। परंतु दुर्देव से कर्ण का जन्मवृत्त किसी को मालूम न होने के कारण इसे यहाँ नीचा दिखना पड़ा। इसके अतिरिक्त कर्ण का पालनकर्ता पिता अधिरथ वहाँ आया तथा कर्ण ने उसे नमस्कार किया। तब सब लोक सूत , सूतपुत्र राधेय आदि कह कर इसकी अवहेलना करने लगे। इस समय कुंती की परिस्थिति भय, भानंद एवं दुखमिश्रित हो गई थी। पुत्रप्रेम से उसका हृदय भर आया। परंतु उसकी अवहेलना तथा पांडयबैर देख कर उसे अत्यंत दुख हुआ।
शौर्य कुल पर निर्भर नहीं रहता
कर्ण के राजपुत्र एवं क्षत्रिय न होने के कारण अपमान उसे सहना पड़ता था। उस समय दुर्योधन ने कहा कि, शौर्य कुल पर निर्भर नहीं रहता। उसने कर्ण को अंगदेश का राज्य दे कर गौरवान्वित किया। इस उपकार के विनिमय की पृच्छा करने पर दुयोंधन ने कर्ण से मित्रत्व भाव कायम रखने की इच्छा प्रदर्शित की। इस प्रकार बाल्यावस्था से इनमें अकृत्रिम मित्रत्व स्थापित हो कर इसने उसके लिये मृत्यु तक का स्वीकार किया ।
जरासंधस्नेह
जरासंध महाभारत का एक प्रमुख पात्र था। वह मगध के राजा था और भगवान श्रीकृष्ण का शत्रु था। जरासंध का जन्म दो आधे हिस्सों से हुआ था जिन्हें राक्षसी जरा ने जोड़ा था। कर्ण ने मल्लयुद्ध कर के जरासंध का जोड़ ढील्ला कर दिया, इसलिये जरासंध ने कर्णको मालिनीनगर दे कर उससे स्नेहसंपादन किया।
विवाह
कर्ण ने काफी सूतकन्याओं से विवाह किये । कर्ण की पत्नियों के नाम वृषाली और सुप्रिया थे। कर्ण का पहला विवाह 32 साल की उम्र में हुआ था। उसके बाद कर्ण का दूसरा विवाह सुप्रिया से तब हुआ, जब दुर्योधन ने कलिंग की राजकुमारी भानुमती से शादी की थी. द्रौपदीस्वयंवर में यह मत्स्य- भेद के लिये आगे बढ़ा, तब द्रोपदीने कहा, “मैं सूतपुत्र को नहीं वरूंगी।” यह सुन कर इसे पीछे हटना पड़ा।
कर्ण के पूत्र
महाभारत के प्रसिद्ध पात्र कर्ण के पुत्रों में से प्रमुख थे चित्रसेन, सत्यसेन, सुषेण, प्रसेन और वृषकेतु। चित्रसेन और सत्यसेन दोनों ही नकुल के द्वारा युद्ध में मारे गए। सुषेण, जिसे चक्ररक्षक कहा जाता था, दुर्योधन के पक्ष का प्रमुख योद्धा था और यह महाभारत युद्ध में उत्तमौजस् के द्वारा मारा गया। प्रसेन का वध सात्यकि ने किया था, जबकि वध से पूर्व इसका उग्रकर्मन् से युद्ध हुआ था। वृषकेतु, कर्ण का एक अन्य पुत्र, युधिष्ठिर के अश्वमेधीय अश्व की रक्षा करते समय बभ्रुवाहन द्वारा मारा गया। ये सभी पुत्र अपने पिता की तरह वीर और योद्धा थे।
कर्ण पुत्र वृषसेन
वृषसेन अंगराज कर्ण का पुत्र, जिसकी पत्नी का नाम भद्रावती था । भारतीय युद्ध में यह कौरवों के पक्ष में शामिल था, एवं इसकी श्रेणि ‘रथी’ थी । इसका निम्नलिखित योद्धाओं के साथ युद्ध हुआ था :- १.शतानीक आदि द्रौपदीपुत्र ; २. सुषेण ; ३. पाण्ड्य ; ४. अभिमन्यु ; ५. अर्जुन ; ६. द्रुपद ७. नकुल । अंत में अर्जुन के द्वारा इसका वध हुआ । इसकी मृत्यु पौष कृष्ण त्रयोदशी के दिन हुई (भारतसावित्री)। इसकी मृत्यु से अंग राजवंश समाप्त हुआ । भारतीय युद्ध के पश्चात्, श्रीव्यास के द्वारा आवाहन किये जाने पर, इसने उसे दर्शन दिये थे।
शिष्टाई के हेतु कृष्ण
कौरव पांडयों के वैर के कारण निष्कारण कर्ण तथा पांडवों में वैर आया। यह देख कर कुंती को अत्यंत दुख हुआ। उसने इसका समाधान कर के पांडवों की सहायता के लिये, इसे प्रवृत्त करने के लिये शिष्टाई के हेतु से कृष्ण को इसके पास भेजा। शिष्टाई के बाद कृष्ण कर्ण के पास गया तथा उसने कर्ण से उसका जन्म वृत्त पता कर कहा, कि तुम्हें सार्वभौम पद का लाभ होगा। पांडवों के समान शूर नररत्न तुम्हारी सेवा करेंगे। द्रौपदी तुम्हारी अधोगी बनेगी। कौरवों द्वारा तुम्हारी हार नहीं होगी, तथा भविष्य में होनेवाला क्षय भी टल जायेगा। सब कार्य ठीक से होगा।
ऐसे कई प्रलोभन इसे दिखाये। कर्ण ने उत्तर में कृष्ण से कहा कि, यद्यपि कुन्ती मेरी माता है एवं पांडव मेरे बंधु है यह कथन मुझे मान्य है, तथापि मुझे नदी में छोड़ कर, कुन्ती ने बडी भारी भूल की है। उसी के कारण मुझे अधिरथ के पास रहना पड़ा। मैंने सूतकन्याओं से विवाह किये तथा उनसे मुझे पुत्रपौत्रादि भी हुए। इन कारणों से, एवं राधा के अनुपम एवं अकृत्रिम प्रेमपाश से मैं बद्ध हो गया हूँ। अब यह संबंध तोड़ना मेरे लिये असंभव है। इसके अतिरिक्त मैं ने दुयोंधन को वचन दिया है कि, मैं उससे आमरण मित्रत्व रहेंगा। इस परिस्थिति के कारण पांडवों के पक्ष में आना मेरे लिये अनुचित है। यह सुन कर कृष्ण निरुत्तर हो गया।
कर्ण से कुंती भेंट
कुंती स्वयं कर्ण से मिलने गई, तथा पुत्र कह कर अपना परिचय उसे दिया। तब प्रथम बताने अनुसार सारा वृत्त कथन कर के, पांडवो का पक्ष लेना उसने साफ अमान्य कर दिया । परंतु कुंती के कथना नुसार वचन दिया कि, मैं केवल अर्जुन से युद्ध कर के उसका वध करूंगा, अन्य पांडवों को में हानि नहीं पहुँचा ऊंगा। यह सुन कर कुंती वापस चली गई।
उत्तरगोग्रहण लड़ाई
पांडव अज्ञातवासकाल में जब विराट के पास रहते थे, तब दुर्योधन ने विराट नगरी पर आक्रमण किया। कीचक की मृत्यु के कारण, उस समय विराट अत्यंत निर्बल हो गया था । दुर्योधन को कर्ण, संशप्तक, वीर सुशमी आदि की सहायता प्राप्त थी, फिर भी इस युद्ध में दुर्योधन का पूर्ण पराभय हुआ। इस युद्ध में कर्णार्जुन का तुमुल युद्ध हुआ, जिस में कर्ण का पूर्ण पराभव हो कर उसके भाई शत्रुंतप का वध अर्जुन ने किया। यह लड़ाई उत्तरगोग्रहण के नाम से प्रसिद्ध है। इसी युद्ध में विराट की एक लक्ष गौए सुशमों ने ले ली थी ।
कर्ण का दिग्विजय
अपना अजिंक्यत्व सिद्ध कर के भीष्मादिकों का मुँह हमेशा बंद करने के लिए, योग्य मुहूर्त देख कर, कर्ण दिग्विजय के लिये निकला। प्रथम द्रुपदनगर को घेरकर द्रुपद तथा उसके अनुयायियों को जीत लिया। तदनंतर यह उत्तर की ओर गया। प्रथम भगदत्त को जित कर, हिमवान् पर्वतीय राजाओं को भी इसने जीता तथा करभार लिया। तदनंतर पूर्व की ओर नेपाल, अंग, बंग, कलिंग, शुण्डिक , मिथिल, मागध , कर्कखंड, आबशीर, योध्य, अहिक्षत्र, वत्सभूनि, मृत्ति- कावती, मोहननगर, त्रिपुरी तथा कोसला नगरी जीत कर करभार लिया।
अनंतर दक्षिण की ओर कुंड़िनपूर के रुक्मी के साथ युद्ध किया।युद्ध में कर्णप्रभाव से संतुष्ट हो कर वह शरण में आया तथा कर्ण के साथ उसकी सहायता करने के लिये गया। पांड्य, शैल, केरल तथा नील प्रदेश जीत कर, कर प्राप्त किया । तदनंतर शैशुपालि को जीत कर, पार्श्व तथा अवंती प्रदेश के सब राजाओं को जीता। बाद में कर्ण पश्चिम की ओर गया। वहाँ यवन तथा बर्बरों को जीत कर उसने कर लिया। इस प्रकार सब दिशाओं को जीतने के बाद, कर्ण ने म्लेच्छ, अरण्यवासी तथा पर्वतवासी राजा, भद्र, रोहितक, आग्रेय, मालव आदि का पराभव किया। तदनंतर शशक तथा यवनों का पराभव कर के, नग्नजित् प्रभृति महारथी नृपसमुदाय को जीता ।
इस प्रकार संपूर्ण पृथ्वी पादाकान्त कर के, कर्ण हस्तिनापुर आया। वहाँ उसका उत्तम स्वागत हुआ। इस अपूर्व विजय के कारण दुर्योधनादि को लगा कि, युद्ध में कर्ण अवश्य ही पांडवों को पराजित कर देगा । जब दुर्योधन ने स्वयंवर में कलिंग के चित्रांगद की कन्या का राजपुर से हरण किया तब कर्ण ने उस की रक्षा की।
कर्ण अंगदेश का राजा
दुर्योधन की कृपा से कर्ण अंगदेश का राजा बन सका। उस देश की सीमाएँ निम्नलिखित है।भागलपूर तथा उसके आसपास का मोगीर प्रदेश मिला कर अंगदेश बना था। भारत के अठारह राजकीय भागों में यह एक था। चंपा अथवा चंपापुरी उसकी राजधानी थी। इस राज्य की उत्तर मर्यादा का पश्चिम छोर गंगा तथा शरयू का संगम था। यह रामायण के रोमपाद का तथा भारत के कर्ण का राज्य था। रामायण में उल्लेख है कि, यहीं महादेव ने मदन को मारा। इसलिये इस देश को अंग तथा मदन को अनंग नाम मिला। अंगदेश में बीरभूम तथा मुर्शिदाबाद जिले आते हैं। कुछ तज्ञों के मतानुसार संताल परगना भी आता है। महानारत में लिखा है कि, यह देश इन्द्रप्रस्थ के पूर्व की ओर दूरस्थित मगध देश के इस ओर है। राजसूय के दिग्विजय में भीम ने कर्ण का यहाँ पराजय किया । अंगदेश का नाम सर्वप्रथम अथर्ववेद में आया है ।
आयु की अपेक्षा कीर्ति की अभिलाषा
अंगराज कर्ण अत्यंत प्रसिद्ध धनुर्धर था। यह मानी हुई बात थी, कि भविष्य में यह कौरव पांडव युद्ध में अर्जुन के विरुद्ध लड़ेगा। इसलिये इन्द्र अत्यंत चिंतित हुआ। कुन्ती को अर्जुन इन्द्र से हुआ था। पुत्र का कल्याण करना उसका कर्तव्य था, अतएव कर्ण को हलचल करने के लिये उसके कवचकुंडल मांगने का विचार उसने किया। इन कवचकुंडलों के कारण कर्ण अजिंक्य एवं अमर था तथा कर्ण के द्वारा अर्जुनवध होना संभव था । परंतु कर्णं अत्यंत उदार होने के कारण, इन्द्र की इच्छा पूरी होना संभव था।
जैसे अर्जुन की चिन्ता इन्द्र को थी, उसी प्रकार कर्ण की चिन्ता सूर्य को थी। इन्द्र का हेतु सूर्य को विदित था। इसलिये कर्ण के स्वप्न में आ कर सूर्य ने दर्शन दिया। सूर्य ने इसे कहा कि, इन्द्र ब्राह्मण वेष से आ कर तुम्हें कवचकुंडल मांगेगा परंतु तुम मत देना। कवचकुंडल अमृत से बने हुए हैं, इसलिये तुम अमर बन गये हो। कवचकुंडल दे कर तुम अपनी आयु का क्षय मत करो, तब कर्ण ने सूर्य को पहचान लिया। कर्ण ने कहा कि, आयु की अपेक्षा कीर्ति श्रेयस्कर है, तथा कीर्ति ने ही उत्तम गति प्राप्त हो सकती है। मैं अमरत्व की आशा से कवचकुंडल की अभिलाषा नहीं रखूँगा। इस पर सूर्य ने कहा कि, अर्जुन का वध कर के जीवितावस्था में तुम कीर्ति प्राप्त कर सकते हो, अतएव कवचकुंडल देना अमान्य कर दो।
परंतु कर्ण ने उसकी मंत्रणा अमान्य कर दी। यह सुन कर सूर्य को अत्यंत दुख हुआ। उसने कहा, “तुम्हारे हित की सलाह देता हूँ, फिर भी तुम नहीं मानते, तो कम से कम इन्द्र से एक शक्ति मांग लो ।” कर्ण ने यह मान्य कर लिया तथा यह इन्द्र की प्रतीक्षा करने लगा।
कर्ण को अमोघ शक्ति
एक दिन इन्द्र ब्राह्मणरूप में कर्ण के पास आया। उस समय कर्ण जप कर रहा था। उस समय इन्द्र ने उसके कवचकुंडल मागे। कर्ण उदार था। किसी भी ब्राह्मण ने कुछ भी माँगा हो, उसे वह वस्तु अवश्य देता था। कर्ण ने तत्काल इन्द्र से हा कहा। यह कवच त्वचा से संलग्न होने के कारण, उसको निकालते समय त्वचा का छिल जाना अवश्यंभावी था। फिर भी कर्ण विचलित नहीं हुआ। उसने तत्काल उन्हें निकाल कर इन्द्र को दे दिया। तब इन्द्र अत्यंत आश्चर्यचकित हुआ तथा प्रसन्न हो कर उसने एक अमोघ शक्ति कर्ण को दी तथा कहा कि, जिस पर तुम यह शक्ति फेंकोगे, उसकी तत्काल मृत्यु हो जावेगी । इतना कह कर इन्द्र गुप्त हो गया। कवचकुंडलों का कर्तन कर देने के कारण, कर्ण को वैकर्तन नाम प्राप्त हुआ। कवचकुंडल छील कर निकालने के कारण कुरूपता प्राप्त न हो, इसके लिये कर्ण ने शर्त रखी थी।
घटोत्कचवध
भारतीय युद्ध का प्रारंभ होने के बाद भीष्म के पश्चात् द्रोण कौरवों का सेनापति बना। उस समय घटोत्कच ने कौरवसेना को अत्यंत त्रस्त किया। कृष्ण के मन से, यद्यपि कर्ण के कवचकुंडलों का भय नष्ट हो चुका था, तथापि कर्ण की वासवी शक्ति से कृष्ण काफी साशंक था। उस शक्ति का नाश करने की इच्छा से ही, उसने उस दिन घटोत्कच की योजना की थी। घटोत्कच ने कौरवसेना के असंख्य सैनिकों का नाश कर उनको बिल्कुल त्रस्त कर छोड़ा। तत्र दुर्योधन कर्ण के पास गया, तथा उस अमोघ शक्ति का प्रयोग घटोत्कच पर करने की प्रार्थना की। कर्ण ने यह अमोघ शक्ति खास अर्जुन के लिये रखी थी। यह बात उसने दुर्योधन को बताई। परंतु उससे कुछ लाभ न हुआ। अन्त में नाखुशी से वह शक्ति घटोत्कच पर छोड़ कर उसने उसका वध किया।
कर्ण को सैनापत्याभिषेक
द्रोणाचार्य के बाद कर्ण को सैनापत्याभिषेक हुआ । कर्ण के समान अद्वितीय योद्धा को, उतने ही अद्वितीय सारथि की आवश्यकता थी। इस समय केवल दो उत्तम सारथि थे। एक श्रीकृष्ण तथा दूसरा भद्र देशाधिपति शल्य। उनमें से कृष्ण अर्जुनका सारथि था। तब दुर्योधन ने शल्य को कर्ण का सारथ्य करने के लिये कहा। इससे क्रोधित हो कर शल्य ने कहा कि, मैं युद्ध छोड़ कर चला जाऊंगा। वह कौरवों का ज्येष्ठ आप्त तथा राजा था। कर्ण का जन्मवृत्त किसी को मालूम न होने के कारण, उसे सब सूतपुत्र कह कर ही जानते थे। इस लिये हीन कुलोत्पन का सारथ्यकर्म करना इसे अपमानास्पद प्रतीत हुआ। परंतु कर्ण के समान शल्य भी दुर्योधन के लिये तन-मन-धन खर्च करने वाला था। इसलिये यह कार्य भी उसने मान्य कर लिया। परंतु ‘सारथ्य के समय उचित प्रतीत हो, सो मैं बोलूँगा तथा उसे कर्ण को सहना ही पड़ेगा, यह शर्त इसने रखी ।
कर्ण के सैनापत्य में घनघोर युद्ध शुरू हुआ। भीष्म, द्रोणादि के प्रहारों से पांडवों की जो आधी सेना बची थी, उन में से आधी इसने नष्ट कर दी। द्रौपदी की अप्रतिष्ठा के कारण, इसे मन ही मन काफी पश्चात्ताप हो रहा था। परंतु जिसका नमक लाया है, उसकी ईमानदारी से नौकरी करने के लिये, भीष्म द्रोणविकों के समान इसे भी युद्ध के लिये सज्ज होना पड़ा। युद्ध के प्रारंभ में शल्य ने अपनी शर्त का काफी उपयोग कर लिया। हर प्रकार से अर्जुन का शौर्य तथा बल इनका वर्णन कर, उसने कहा कि, अर्जुन के समक्ष तुम टिक नहीं सकते। परंतु भयंकर युद्ध में मग्न होते हुए भी, इस प्रकार धैर्य गलित करने वाला भाषण सुन कर, कर्ण नहीं घबराया। इसने खरे खरे उत्तर दे कर उसे चुप कर दिया। किंतु इसके पश्चात् शस्य ने इसे प्रोत्साहन दिया।
कर्ण का अंत
युद्ध चालू रहते समय, कर्ण का पुत्र वृषसेन मारा गया । इससे इसे अपरिमित दुख हुआ, तथा यह त्वेष से लड़ने लगा। इस प्रकार कर्णार्जुन का घनघोर युद्ध प्रारंभ हो गया। उस समय पीछेवर्णित शाप के समान इसकी स्थिति होने लगी। ब्रह्मास्त्र का स्मरण यह न कर सका। इसके रथ का पहिया भूमि में फंस गया। तब लाचार हो कर यह रथ के नीचे उतरा, तथा पहिया उठाने का प्रयत्न करने लगा। इस प्रसंग में युद्ध असंभव था, अतः इसने अर्जुन को कुछ देर रुकने के लिये कहा। परंतु कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि, केवल इसी स्थिति में कर्ण का बघ होना संभव है, अन्यथा असंभव है।
तद्नंतर कर्ण के दुष्कृत्यों का स्मरण दिला कर कृष्ण ने कहा कि, तुम्हारा वध करना ही श्रेयस्कर है। इस प्रकार कर्ण बड़े ही संकट में फंस गया। इसने एक हाथ से पहिया उठाते ही, भूमि चार अंगुल ऊपर उठाई गई परंतु पहिया नहीं निकला। दूसरे हाथ से यह अर्जुन से लड़ रहा था। इस प्रकार व्यस्त अवस्था में अर्जुन ने इस का वध किया। इस युद्ध में धर्म, भीम तथा नकुल का पराभव कर के, कर्ण ने उन्हें छोड़ दिया था ।
कर्ण की मृत्यु से गांधारी को अत्यंत दुःख हुआ । कर्णके छः पुत्र इस युद्ध में मारे गये। उनमें से सुबाहु तथा वृषसेन का वध अर्जुन ने, एवं सत्यसेन, चित्रसेन तथा सुशेण का वध नकुल ने किया।
कर्ण के छः भाइयों का वध इस युद्ध में हुआ। उनमें शत्रुंजय, शत्रुतप तथा विपाट का वध अर्जुन ने किया। एक का वध अभिमन्यु ने किया । हुम तथा वृकरथ का वध भीम ने किया ।
अर्जुन ने कर्ण का वध किया, इस लिये धर्मराज ने अर्जुन को बधाई दी । परंतु आगे चल- कर कुंती ने बताया कि, कर्ण उसका पुत्र था । इससे पांड़यों को अत्यंत दुख हुआ । इसी समय धर्मराज ने शाप दिया कि, स्त्रियों के मन में कुछ मी गुप्त नहीं रहेगा । भविष्य- पुराण में लिखा है कि, कर्ण आगे चल कर तारक नाम से जन्म लेगा ।