अंधक भारतीय पौराणिक कथाओं में एक प्रमुख असुर था, जिसकी उत्पत्ति और जीवन की घटनाएँ अद्वितीय और रहस्यमयी हैं। अंधक का जन्म देवी पार्वती के धर्मबिंदुओं से हुआ था। हिरण्याक्ष, जो पुत्र प्राप्ति के लिए तपस्या कर रहा था, को भगवान शंकर ने यह पुत्र प्रदान किया। हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यपु की मृत्यु के बाद, अंधक ने गद्दी संभाली। वह अपनी शक्ति और पराक्रम के लिए प्रसिद्ध हुआ। परंतु उसकी महत्त्वाकांक्षाएँ उसे विनाश के मार्ग पर ले गईं। उसने पार्वती का हरण करने की योजना बनाई, जिसके परिणामस्वरूप महाकाल वन में शंकर के साथ उसका घनघोर युद्ध हुआ।
शंकर और अंधक का युद्ध
महाकाल वन में हुए इस युद्ध में, अंधकके प्रत्येक रक्तबिंदु से इसी के समान व्यक्ति उत्पन्न हो कर, अंधको से संपूर्ण संसार व्याप्त हो गया। तब शंकर ने अंधकों के रक्त को प्राशन करने के लिये, मातृका उत्पन्न कीया तथा उन्हें अंधक का रक्त प्राशन करने के लिये कहा। वे रक्त पी कर तृप्त हो जाने के बाद, पुनः रक्तबिंदुओं से अगणित अंधक उत्पन्न होने लगे। उन्होंने शंकर का अजगव धनुष्य भी हरण कर लिया । अंत में शंकर त्रस्त हो कर विष्णु के पास गया । विष्णु ने शुष्करेवती उत्पन्न की, तथा उन्होंने सब अंधकों का नाश कर दिया। शंकर ने मुख्य अंधक को सूली पर चढाया, उस समय अंधक ने उसकी स्तुति की। शुक्राचार्य संजीवनीविद्या से मृत असुरों को जीवित कर देते थे, इससे इसकी शक्ति कम न होती थी। तब शंकर ने शुक्राचार्य को निगल लिया तथा अंधक को गणाधिपत्य दे कर संतुष्ट किया । गणों का मुख्य स्थान इसे देने के पश्चात् इसका नाम मुंगीरीटी रखा गया। इसके पुत्र का नाम आडि है।
अंधक और देवताओं का युद्ध
अपनी उम्र तपश्चर्या के बल पर सत्र देवताओं को जीतने के लिये, अंधकने शंकर से वरदान मांगा। परंतु विष्णु तथा शंकर के सिवा सबको जीतने का वरदान उन्होंने दिया । तदनन्तर यह ससैन्य अमरावती में प्रविष्ट हुआ तथा इन्द्र इसकी शरण में आया। इसके बाद इन्द्रकी उचैःश्रवस, उर्वशी आदि अप्सरायें तथा इन्द्राणी को ले कर जब यह लौट रहा था तब देवताओं ने इसके न साथ युद्ध किया। परंतु उसमें उनका पराभव हुआ। तदनंतर अंधक पाताल में रहने लगा। अन्त में देवताओं के कहने से, विष्णु ने इसके साथ युद्ध किया। उसमें इसका पराभव होने के पश्चात् इसने विष्णु की स्तुति की, तथा शंकर से युद्ध करने की संधि प्राप्त होने के लिये वरदान मांगा। तब विष्णु ने इसे कैलाशपर्वत हिलाने को कहां। ऐसा उसने करते ही शंकर का तथा इसका युद्ध प्रारंम हुआ। उसमें शंकर को उसने मूच्छित कर दिया परंतु शंकर जागृत होते ही पुनः युद्ध प्रारंभ हुआ । शंकर ने चामुंडा का स्मरण किया, जिन्होंने अंधक का समस्त रक्त प्राशन कर लिया। अंधक की प्रार्थना के बाद, शंकर ने उसे शिवगणों में स्थान दिया और उसका नाम भृगीश रखा। उज्जयिनी में राज्य करते समय, उसने माया का निर्माण कर अंधकार उत्पन्न किया और देवताओं को हरा दिया। अंत में, नरादित्य ने प्रकाश उत्पन्न कर, शंकर को मदद की और अंधक का वध किया।
अंधक का जीवन और उसकी घटनाएँ हमें यह सिखाती हैं कि अत्यधिक महत्वाकांक्षा और अहंकार का परिणाम विनाशकारी हो सकता है।