विश्व हिंदू परिषद

धर्म

भारत का एक हिंदू संगठन । भारत, जो एक प्राचीन और गौरवशाली परंपरा और इतिहास वाला देश है, लगभग बारह सौ वर्षों तक विदेशी आक्रमणों और कुछ सदियों तक विदेशी साम्राज्य के अधीन रहा। इस कारण यहां के समाज में अनेक प्रकार की कमजोरियाँ उत्पन्न हो गईं। यह मान्यता थी कि विदेशी शासन, विशेष रूप से अंग्रेजी शासन, हमारी कमजोरी का ‘कारण’ था। परंतु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलीराम हेडगेवार (1889-1940) का विश्लेषण था कि हमारी समाज की कमजोरियाँ पहले से ही बढ़ रही थीं, जिसके कारण विदेशी शासन सदियों तक टिक सका। इसलिए, डॉ. हेडगेवार के अनुसार, हमारी कमजोरियाँ ही विदेशी शासन का ‘कारण’ नहीं, बल्कि ‘परिणाम’ थीं। इस दृष्टिकोण के आधार पर, उन्होंने कहा कि सभी प्रकार की कमजोरियों और सामाजिक असंगठित अवस्थाओं को दूर करना ही स्थायी और ठोस उपाय है। यह मूलभूत चिंतन ही ‘विश्व हिंदू परिषद’ की स्थापना के पीछे की पृष्ठभूमि थी।

लगभग एक हजार वर्षों के लंबे कालखंड में, आपसी प्रतिस्पर्धा और जाति, पंथ, क्षेत्र, प्रदेश, और आर्थिक स्तर के भेदभाव समाज में गहराई से जड़ें जमाए हुए थे, जिससे समाज कमजोर हो गया था। इस कमजोरी को समाप्त करके हिंदू समाज में एकात्मता, समरसता और एकजुटता पुनः स्थापित करना ही परिषद की स्थापना का सकारात्मक उद्देश्य था।

यह एक सामाजिक, धार्मिक और सेवा-प्रधान संगठन है जो राजनीति से अलिप्त है। हिंदू धर्म और हिंदू संस्कृति के प्रति गर्व, निष्ठा और भक्ति को जागृत करना, प्राचीन और समृद्ध जीवन प्रणाली के प्रति श्रद्धा बनाए रखना, हिंदुओं के आध्यात्मिक मूल्यों पर आधारित नैतिक गुणों का विकास करना, अस्पृश्यता को समाप्त करना, वंचित और पिछड़े हुए भाइयों को प्रगति की समान अवसर देना, वनवासी और गिरिजन भाइयों को सामाजिक सुरक्षा और प्रतिष्ठा प्रदान करना, और संपूर्ण विश्व में हिंदू विचार, जीवनशैली और मानवता के कल्याण के मूल्य प्रसारित करना परिषद के उद्देश्य हैं।

‘हिंदुत्व’ को एक व्यापक जीवन तत्व माना जाता है, जो स्नेह और समन्वय के साथ पूरे विश्व की चिंता करता है। परिषद का मानना है कि यही व्यापक दृष्टिकोण विश्व-समन्वय के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।

इन मूलभूत उद्देश्यों के साथ, 29 अगस्त 1964 को मुंबई के पवई स्थित सांदीपनी साधनालय आश्रम में 40 से अधिक विशेष आमंत्रितों की बैठक में ‘विश्व हिंदू परिषद’ की स्थापना की गई। संस्थापक सदस्यों में स्वामी चिन्मयानंद, डॉ. कनैयालाल मुनशी, मास्टर तारासिंग,  भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार, सी. पी. रामस्वामी अय्यर, जैन मुनी सुशील कुमार,  स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी, और शृंगेरी, द्वारका, कांची कामकोटी, ज्योतिष, गोवर्धन पीठों के शंकराचार्य शामिल थे।

शि. शं. (दादासाहेब) आपटे संस्थापक महामंत्री नियुक्त हुए। इस उपक्रम के प्रेरणाप्रयत्नों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक गोळवलकर गुरुजी की प्रमुख भूमिका थी। इसके बाद, क्रमशः धर्म संसद, विद्वत परिषद, भारत कल्याण परिषद, बजरंग दल, दुर्गावाहिनी जैसी विभिन्न क्रियाशील कार्य संरचनाएं स्थापित की गईं और उनके माध्यम से विभिन्न कार्य किए जाते हैं।

विश्व हिंदू परिषद के पिछले तीन दशकों के राष्ट्रीय स्तर के प्रमुख कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों में पहले अध्यक्ष मैसूर नरेश जयचामराज वाडियार, लाला हंसराज गुप्ता (दिल्ली), महाराणा भगवंत सिंह (मेवाड़), पं. रामनारायण शास्त्री (इंदौर), हरमोहन लाल, केका शास्त्री, मंदाकिनी दाणी आदि शामिल हैं।

धर्माचार्यों का समन्वय, सेवाव्रत, वनवासी क्षेत्र, गोरक्षण और गोसंवर्धन, महिला जीवन, धर्मांतरण पर रोक और धर्मांतरितों का पुनर्वर्तन और पुनर्वास, प्रचार-प्रसार आदि विभिन्न विभागों के कार्य योजनाबद्ध तरीके से चलते हैं। विदेश विभाग के माध्यम से विदेशों में हिंदुओं से संपर्क, संगठन, युवा-प्रशिक्षण, सेवा भावना प्रेरणा आदि कार्य संचालित किए जाते हैं। चालीस से अधिक देशों में परिषद का नियमित कार्य चलता है और नव्वद देशों में सतत संपर्क बना रहता है। अमेरिका, अफ्रीका, डेनमार्क, नीदरलैंड्स, इंग्लैंड, नेपाल, सिंगापुर आदि में 1984 से विश्व सम्मेलन भी आयोजित किए गए हैं।

धर्म संसद के 1984 में दिल्ली और 1985 में उडुपी अधिवेशनों में हिंदू समाज के बहुसंख्य पंथों और उपपंथों के अध्वर्य कार्यकर्ता एक मंच पर हिंदू समाजरचना के विचार के लिए एकत्र आए, यह बड़ी उपलब्धि थी। वहाँ ‘न हिंदु पतितो भवेत्’ इस समावेशी घोषणा के साथ, प्रचलित अनुचित और विभाजनकारी प्रवृत्तियों का त्याग करने का संदेश दिया गया। इन दो और बाद की छह धर्म संसदों में इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए निम्नलिखित आचार संहिता के पालन का आह्वान संपूर्ण हिंदू समाज से किया गया है: (1) सामाजिक एकात्मता का पोषण, (2) अस्पृश्यता निवारण, जातिभेद का विरोध, दहेज प्रतिबंध, (3) आदर्श पारंपरिक महापुरुषों का गौरव, (4) धार्मिक और नैतिक शिक्षा, संस्कृत भाषा का प्रशिक्षण, (5) श्रम प्रतिष्ठा और इसके माध्यम से समानता, (6) कमजोर, अभावग्रस्त, आपद्‌ग्रस्त घटकों की सहायता और अवसर, (7) मंदिर संस्था का जीर्णोद्धार और सामाजिक चेतना केंद्र के रूप में विकास, (8) त्योहार और उत्सवों के सामाजिक आशय की समझ, (9) अन्य देशों के हिंदू समाज से संपर्क और समन्वय, (10) धर्मांतरण पर रोक और धर्मांतरितों का पुनर्वर्तन, (11) हिंदुओं के प्रतिष्ठान और श्रद्धास्थानों की प्रतिष्ठा बनाए रखना, (12) हिंदू हित संरक्षण के लिए हिंदू विरोधी षड्यंत्रों पर नजर रखना और आवश्यकतानुसार संघर्ष की सिद्धता करना।

उपरोक्त संहिता के अनुसार, विश्व हिंदू परिषद ने विशेष उपक्रम हाती लिए हैं। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं:

समाज सेवा और प्रबोधन: विभिन्न क्षेत्रों में चिकित्सा और स्वास्थ्य केंद्र, वनवासी-विकास केंद्र, स्व-रोजगार परियोजनाएं, वंचित बच्चों के लिए बालवाड़ी-संस्कार केंद्र-आवासीय विद्यालय, महिला विकास केंद्र, मोबाइल चिकित्सा सेवा, आदि इस तरह के 2,100 से अधिक सेवा परियोजनाएं भारत के सभी प्रांतों में परिषद के कार्यकर्ता चला रहे हैं। सेवा, संस्कार, समन्वय और सामाजिक सुरक्षा इन चार पहलुओं पर सभी परियोजनाओं की संरचना आधारित है। शांताराम हरी केतकर द्वारा लिखित ‘सेवासरिता का अमृतकुंभ’ (1997) पुस्तक में इनमें से कुछ परियोजनाओं की जानकारी दी गई है। इनमें मुंबई-अहमदाबाद राष्ट्रीय राजमार्ग पर तलासरी (जिला ठाणे) स्थित ‘वनवासी कल्याण केंद्र’ परियोजना उल्लेखनीय है।

महत्वपूर्ण और सामयिक राष्ट्रीय समस्याओं की ओर हिंदू समाज और सरकार का ध्यान आकर्षित करने के लिए उपक्रम चलाए जाते हैं। उदाहरण के लिए, गोवंश संरक्षण और संवर्धन, पूर्वोत्तर भारत में घुसपैठ, हिंसा और आतंक, एक लाख से अधिक लोगों का पुनर्वर्तन, अन्य धर्मों की हिंदू विरोधी षड्यंत्रों और विभाजनकारी प्रवृत्तियों का विरोध, राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन का संचालन और उसके लिए रथयात्राओं का प्रभावी आयोजन आदि विषयों पर परिषद ने शांतिपूर्ण तरीकों से कार्य किया है।

विश्व हिंदू परिषद द्वारा ‘हिंदू चेतना’ नामक पाक्षिक पत्रिका प्रकाशित की जाती है। प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासकार आर्नोल्ड जोसेफ टॉयन्बी ने चेतावनी दी है कि ‘पश्चिमी जगत में जिस अध्याय की शुरुआत हुई है उसकी समाप्ति अगर मानव जाति के विनाश में नहीं होनी चाहिए, तो उसका समाधान भारत की जीवनशैली में ही है और वह इस प्रेरणा में निहित है कि संपूर्ण मानव समाज एक परिवार की तरह रहे (वसुधैव कुटुंबकम्‌)।’

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